Friday, January 11, 2008

सुनहरी यादें

वतन से दूर रहकर भी नहीं ऐसा लगा कि दूर हूँ मैं ,
उस मान को सम्मान को कैसे भूलाऊं।
जो यादें बन गईं हैं डोर जीवन की ,
जिसे मैं जी रहा हूँ हर घड़ी कैसे भूलाऊं ।
जो रिश्ते बन गए परदेश में इंसानियत की ,
उसे मिलना यहाँ मुश्किल इसे कैसे बताऊँ ।
जिन मुश्किलों से जूझ कर मैं थक गया था ,
उन मुश्किलों की याद मैं कैसे भूलाऊं ।
ख्वाब देखे थे बहुत पर लक्ष्य कोसों दूर था पर ,
थी तमन्ना एक मन मैं आज मैं कैसे भूलाऊं ।
ज़ंग जीवन है, परिश्रम आ गया था अस्त्र बनकर,
प्रेरणा थी, भाग्य था, भगवान् थे, कैसे भूलाऊं ।

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