Tuesday, January 22, 2008

विरह वेदना

विरह की आग में जलना बुरा है

सजाए सेज फूलों की लगाए आस बैठी थी

बदन था दूर पर तेरे ह्रदय के पास बैठी थी


गगन में चाँद हंसते थे चकोरी खिलखिलाती थी

पिया के पास में बैठी पपीहा मुस्कुराती थी


घटाएं झूमकर आकाश में कुछ कह रहीं थीं

लगा संदेश लाया जब हवाएं गूँजती थीं


वियोग -विदग्ध होकर भी यही है आरजू मेरी

भुलाना मत उसे जो दूर रहकर भी बनी है बंदनी तेरी


तमन्ना थी तुम्हारे साथ रहकर पल बिताने की

बताओ क्या करूं मैं आज इस विरानगी की


बिताऊं जिन्दगी कैसे जिसे तुमने दिया है

विरह की आग मैं जलना बुरा है

1 comment:

Jyotsana said...

I wonder if there is a site that you can submit your poetry to! Or..a publication or something. I think this one is great!!

hmmm..i should look into that, just for the hell of it. :)